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क्या समान नागरिक संहिता लागु करना अब देश की जरुरत है ?

Alok Srii
Alok Srii
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समय आ गया जब मुस्लिम महिलाओ के हित और संरक्षरण को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार को देश में सामान नागरिक संहिता को लागु करना चाहिए क्योंकि देश की माननीय अदालते भी बाल केंद्र के पाले में डाल दिया है !

एक ईसाई दम्पत्ति के तलाक प्रकरण की सुनवाई करते हुए गत दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार से यह जानना चाहा कि क्या वह देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की इच्छुक है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके साथ यह भी कहा-‘‘हम लोगों को समान नागरिक संहिता पर काम करना चाहिए’’ इसको लेकर क्या हुआ? अगर सरकार इसे करना चाहती है तो आपको करना चाहिए। सरकार इसे बनाती क्यों नहीं है और लागू क्यों नहीं करती है? गत फरवरी महीने में ही सर्वोच्च न्यायालय ने एक अन्य प्रकरण में कहा था कि यह बहुत ही आवश्यक है कि सिविल कानूनों से धर्म को बाहर किया जाए। इतना ही नहीं एक और प्रकरण में 11 मई, 1995 को कामन सिविल कोड अनिवार्य रूप से लागू किए जाने पर जोर दिया था। शीर्ष अदालत का कहना था, इससे एक ओर जहां पीड़ित महिलाओं की सुरक्षा हो सकेगी वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय एकता और एकात्मता बढ़ाने के लिए भी यह आवश्यक है।

सर्वोच्च न्यायालय ने तो उस वक्त यहां तक कहा कि इस तरह के किसी समुदाय के निजी कानून स्वायत्तता नहीं, बल्कि अत्याचार के प्रतीक हैं। आगे यह भी कहा गया कि जिन्होंने देश विभाजन के पश्चात भारत में रहना स्वीकार किया उन्हें अच्छी तरह पता होना चाहिए कि भारतीय नेताओं ने द्विराष्ट्र अथवा तीन राष्ट्रों के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया। भारत एक राष्ट्र है और कोई समुदाय मजहब के आधार पर स्वतंत्र अस्तित्व का दावा नहीं कर सकता। तत्संबंध में सर्वोच्च न्यायालय न्याय और कानून मंत्रालय को यह भी निर्देशित किया था कि वह जिम्मेदार अधिकारी द्वारा शपथ पत्र प्रस्तुत करके बताए कि समान नागरिक संहिता के लिए न्यायालय के आदेश के परिप्रेक्ष्य में केन्द्र सरकार द्वारा क्या-क्या प्रयास किए गए? यह बात अलग है कि वर्ष 1995 से लेकर आज तक इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई और इस तरह से सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः गत दिनों इस बात पर जोर दिया। कहने को तो वर्ष 1949 में हमारी संविधान सभा द्वारा जो संविधान बनाया गया, उसमें अनुच्छेद 44 में इस बात का प्रावधान किया गया कि देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता प्रयोज्य होगी। तथ्य यह है कि कई मुस्लिम देशों इजिप्ट, टर्की, यहां तक पाकिस्तान तक ने इस मामले में अपने कानूनों में सुधार किया है। कई मुस्लिम देशों ने मुस्लिम निजी कानूनों में परिवर्तन किया है, जिससे बहु-विवाहों पर रोक लगायी जा सके। इसमें सीरिया, मोरक्को और इरान जैसे देश शामिल हैं। पर पता नहीं भारत जो अपने को दुनिया को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है, वहां पर इसकी चर्चा छिड़ते ही कुछ ऐसा हंगामा बरपता है, जैसे मुसलमानों के अस्तित्व को मिटाने का प्रयास किया जा रहा हो।

देश में कामन सिविल कोड लागू नहीं होना चाहिए, इसके लिए तरह-तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं। इसको मुसलमानों के धर्म से तो जोड़ा ही जाता है। यह भी कहा जाता है कि जब इस देश में कई भाषाएं प्रचलित है, तो कोई कहता है जब संविधान में एस.सी., एस.टी. एवं अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है तो फिर कामन सिविल कोड के लिए इतना आग्रह क्यों? कुल मिलाकर कुछ ऐसे तर्क कामन सिविल कोड के विरूद्ध दिए जा रहे हैं कि जब पांचों उगंलियां बराबर नहीं होती हैं तो समान कानून का आग्रह क्यों? इस तरह से इस भेदभाव युक्त कानून की पैरवी की जाती है। जबकि हमारे संविधान के अनुच्छेद 15 में यह वर्णित है कि राज्य-सम्प्रदाय, जाति, लिंग के आधार पर किसी भी नागरिक से कोई भेदभाव नहीं करेगा। वाबजूद मुस्लिमों के संदर्भ में निजी कानून लागू किए गए, जबकि संविधान निर्माण के वक्त मीनू मसानी, श्रीमती हंसा मेहता एवं राजकुमारी अमृत कौर द्वारा यह चेतावनी दी गई थी इस तरह से निजी कानूनों का अस्तित्व आगे चलकर राष्ट्रीयता के विकास में बाधक बनेगा।

निस्संदेह, इन नेताओं की यह चेतावनी कितनी यथार्थपरक थी यह विगत कई वर्षों से देखने को मिल रहा है। इसी भेदभाव पूर्ण कानून अथवा मुस्लिमों की पृथक पहचान के चलते जहां अमूमन मुस्लिम राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग-थलग है वहीं वह विकास की दौड़ में भी पीछे हो गए हैं। ऐसे विभाजक कानून ही ऐसी विभाजक मानसिकता बनाते हैं कि कश्मीर घाटी से लाखों हिंदुओं को पलायन करना पड़ता है, देश में जेहादी आतंकवाद का बोलबाला हो जाता है। ऐसे कानूनों के चलते ही देश में मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात बढ़ता जा रहा है जिसके चलते असम जैसे राज्यों को आने वाले वर्षों में कश्मीर की राह पर जाने का खतरा पैदा हो गया है। ऐसे विभाजक एवं तुष्टिकरण वाले कानूनों के चलते ही कश्मीर में पृथकतावादी धारा 370 लागू है, कई लाख बांग्लादेशी घुसपैठिए देश में प्रवेश कर देश की जनसंख्यात्मक चरित्र बदल रहे हैं।

यद्यपि कानून मंत्री सदानंद गौड़ा का कहना है कि राष्ट्रीय एकता के लिए समान नागरिक संहिता जरूरी है, लेकिन इसे लाने के लिए व्यापक विचार विमर्श की आवश्यकता है। यह भी सच है कि भाजपा की अगुवाई में वर्तमान में केन्द्र सरकार काम कर रही है, और वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी भाजपा ने समान नागरिक संहिता लागू करने पर जोर दिया था। यह भी सच है कि समान नागरिक संहिता भाजपा का मूलभूत ध्येय रहा है। लेकिन समान नागरिक संहिता लागू करने में समस्या ही नहीं, बल्कि भयावह समस्या है। समस्या यह है कि इस देश में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां जो विशुद्ध मुस्लिम तुष्टीकरण एवं वोट बैंक की राजनीति करती हैं वह सर्वोच्च न्यायालय के कथनों के संदर्भ में अवमानना के डर से भले चुप रहें। पर जैसे ही केन्द्र सरकार इस दिशा में पहल करेगी, तो ये तत्व सिर पर आसमान उठा लेंगे। वह कहेंगे कि यह मुसलमानों की पहचान मिटाने का प्रयास है, यह उनके धर्म पर हमला है। इस तरह से मोदी सरकार मुस्लिम विरोधी है। वह उन्हें नेस्तनाबूत कर देना चाहती है।

वैसे भी यह तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी मुस्लिमों के बहाने मोदी सरकार पर हमले का बहाना ढूंढते रहते हैं तभी तो गौमांस-प्रकरण पर दादरी में जब एक मुसलमान की हत्या हो जाती है तो इसका जिम्मेदार भाजपा एवं मोदी सरकार को ठहराया जाता है। जबकि कानून एवं व्यवस्था का अधिकार पूरी तरह राज्यों के अधिकार क्षेत्र में है। पर मुद्दाविहीन विपक्षी पार्टियों के पास अब जातियता एवं साम्प्रदायिकता का औजार ही बचा है। तभी तो सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जब आरक्षण के समीक्षा की बात करते हैं, तो लालू यादव जैसे प्रमाणित भ्रष्ट नेता उसे भाजपा का आरक्षण समाप्त करने का प्रयास बताते हैं ताकि जातीय गोलबंदी की जा सके। इसी तरह से कामन सिविल कोड लाने के प्रयास में ये तत्व साम्प्रदायिक गोलबंदी कराने का भरपूर प्रयास करेंगे। कामन सिविल कोड के मामले मे सबसे बड़ी समस्या यही है- इसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय को भी पता होना चाहिए। इन सबके वाबजूद देश को इस बात के लिए आश्वस्त होना चाहिए कि आनेवाले समय में इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाएंगे-क्योंकि ‘‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’’ का एकमेव यही मार्ग है।

दरअसल समान नागरिक संहिता को लेकर उच्चतम न्यायालय अपना रूख साफ कर चुका है पर सरकार के स्तर पर इसमें सियासत का घाल-मेल अधिक शामिल रहा है। यह परस्पर विरोधी विचारधाराओं की टकराहट को समाप्त करके राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने में सहायक सिद्ध हो सकती है पर यह संहिता धरातल पर उतरेगी ऐसी आशा रखना मृगमारीचिका की भांति है। शाह बानो से लेकर न जाने कितने मुस्लिम और इसाई सहित कई मामले न्यायालय की चैखट पर आये पर समान नागरिक संहिता दूर की कौड़ी बनी रही। तीस बरस पहले इस विधेयक पर चर्चा के दौरान इन्द्रजीत गुप्ता ने कहा कि इसे कदापि पारित नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मूल अधिकारों से सम्बन्धित अनुच्छेद 14 एवं 15(1) का उल्लंघन करता है। 8 मई, 1986 को राज्यसभा में चर्चा के दौरान साम्यवादी दीपेन घोष ने कहा कि यह विधेयक मुस्लिम महिलाओं को भेड़ियों का ग्रास बना देगा। जनता पार्टी के एक सांसद ने तो कहा कि यह संविधान की मूल भावना का ही हनन करता है। कम्यूनिस्ट के गुरदास दासगुप्ता ने इसे देश विरोधी बताया था जबकि सर्वोच्च न्यायालय इसे लागू कराने के लिए बार-बार निर्देश देता रहा है। सर्वोच्च न्यायालय समान नागरिक संहिता के संदर्भ पर अब तक तीन बार अपने विचार दे चुका है। सबसे पहले 23 अप्रैल, 1985 में मोहम्मद अहमद बनाम शाह बानो बेगम मुकदमे में निर्णय देते हुए कहा कि यह अत्यंत खेद की बात है कि संविधान का अनुच्छेद 44 अभी तक लागू नहीं किया गया। तब से तीन दशक बीत जाने के बावजूद अभी भी यह मामला केवल गाहे-बगाहे चर्चा और विमर्श तक ही रह जाता है। दरअसल समान नागरिक संहिता को कोई भी कुरेद कर जोखिम नहीं लेना चाहता पर इससे जो सामाजिक ताना-बाना बिगड़ रहा है उसका क्या होगा इस पर भी बहुत बेहतर राय नहीं देखने को मिली है। सवाल है कि क्या समान सिविल संहिता राष्ट्र की आवश्यकता है, क्या यह कभी मूर्त रूप ले पायेगी, हालात को देखते हुए मामला खटाई में ही जाता दिखाई देता है। जानकारों की राय में समान सिविल संहिता भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में एक शक्ति काम कर सकती है। भारत विजातीय देश है ऐसे में इसे अनेकता में एकता को सुदृढ़ करने के काम में भी लिया जा सकता है। विश्व के अधिकतर आधुनिक देशों में इसकी व्यवस्था देखी जा सकती है।
व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो समान नागरिक संहिता भविष्य में एक सामाजिक उत्थान करने वाला उपकरण साबित हो सकता है। हिन्दू, मुस्लिम, जैन, इसाई, पारसी इत्यादि समुदायों के लिए अलग-अलग वैयक्तिक विधियों को समाप्त कर एक समान विधि को लागू करने से जहां एकरूपता आयेगी वहीं समुदाय और समाज भी एक सूत्र में बंधा दिखेगा जो स्वयं में एकता और अखण्डता की मिसाल होगी। संविधान सभा का बहुमत भी इसके साथ था पर बढ़ते समय के साथ इसके प्रति उदासीनता भी बढ़ती गयी और आज भी इसका क्रियात्मक पक्ष सामने नहीं आया। कई बार संसद में इसको लेकर बहस और चर्चा का बाजार गर्म रहा। उच्चतम न्यायालय के निर्देश भी इसके पक्ष में आते रहे पर मामला ढाक के तीन पात ही रहा। संविधान लागू होने के बाद हिन्दू कोड बिल तो आया परन्तु अन्य समुदायों से सम्बन्धित पर्सनल लॉ में कहीं भी कोई कोशिश नहीं की गयी। भले ही भाजपा समान नागरिक संहिता की बात करती रही हो पर सच तो यह है कि राजनीतिक दल इस मामले में साथ तो नहीं देने वाले। स्थिति को देखते हुए नहीं लगता कि मामला अभी भी आगे बढ़ेगा। फिलहाल अब सभी समुदायों को धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता का मान रखते हुए सर्वमान्य समान नागरिक संहिता का मन बना लेना चाहिए। इससे न केवल देश एकरूपता के सूत्र में बंधेगा बल्कि सामाजिक समस्याओं का समाधान भी आसानी से किया जा सकेगा।

http://hn.newsbharati.com/…/uniform-civil-code-suprime-cour…

अहमदाबाद : गुजरात हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में गुरुवार को कहा कि मुस्लिम कई पत्नियां रखने के लिए कुरान का दुरुपयोग कर रहे हैं। हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अब समय आ गया है जब देश में एक कानून बने और ऐसे नियमों को हटाया जाए, जो संविधान की गरिमा के खिलाफ है।

जफर अब्बास मर्चेंट नाम के एक शख्स ने कोर्ट में याचिका दायर करके उसके खिलाफ की गई एफआईआर रद्द करने की मांग की थी, जो उसकी पत्नी ने दर्ज कराई थी। अब्बास की पत्नी ने आरोप लगाया था कि उसने बिना अनुमति के दूसरी महिला से शादी कर ली और अब कुरान का हवाला देकर इसे सही बता रहा है।

कोर्ट में दायर की गई याचिका में भी अब्बास ने यह दलील दी थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ का हवाला देते हुए कहा था कि उसे चार शादियां करने की छूट है। इसलिए उसके खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर गैरकानूनी है।

कोर्ट ने मामले की सुनवाई पर कहा कि कुरान में यह वक्तव्य एक खास मकसद और परिस्थिति के लिहाज से है और उसकी वजह भी साफ है, लेकिन वर्तमान समय में लोग इसका गलत इस्तेमाल कर रहे हैं।

गुजरात हाईकोर्ट (HC) ने एक केस के दौरान समान नागरिक संहिता की जरूरत पर भी जोर दिया है. कोर्ट का ये स्टेटमेंट जफर अब्बास नाम के एक शख्स की अर्जी के बाद आय़ा. जफर अब्बास ने गुजरात हाईकोर्ट (HC) में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के उस प्रावधान के तहत दरवाजा खटखटाया था जिस प्रावधान में एक से ज्यादा शादियों की इजाजत है. और अब्बास को हाईकोर्ट (HC) जाने की नौबत इस लिए आई क्योकि अब्बास की पहली पत्नी शाजिदा ने भावनगर की अदालत में IPC को सेक्शन 494 के तहत मामला दर्ज कराया था. IPC के सेक्शन 494 के तहत एक से ज्यादा शादियों पर रोक है. लेकिन, अब्बास ने अपनी याचिका में ये कह रहा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत एक से ज्यादा पत्नी रखने की इजाजत है.

http://specialcoveragenews.in/…/story-state-gujarat-quran-…/

क्या मुस्लिम लॉ बोर्ड, हाईकोर्ट (HC) से भी बड़ा है ?

इस मामले में गुजरात हाईकोर्ट (HC) ने जफर अब्बास को राहत तो दे दी लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ पर भी सवाल उठाए. कोर्ट ने पूछा कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड किस आधार पर इस तरह की इजाज दी गई है, क्या उन्हे नहीं लगता कि आज के दौर के हिसाब से ये नियम सहीं ठहराना मुश्किल है. क्योंकि अब वैसी परिस्थितियां नहीं है. कोर्ट ने कहा कि यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना विधायिका का काम है, लेकिन वक्त की मांग है कि इसे लागू किया जाए. कोर्ट का कहना है कि क्योंकि यूनिफॉर्म सिविल कोड फिलहाल नहीं है इसलिए मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत याचिकाकर्ता को IPC के सेक्शन 494 से राहत दी जा रही है.

अब सवाल ये उठता है कि आज के दौर में हम कई उन कानूनों को चला रहे है जो पिछले दिनों के हालात पर उस दौर की रूढ़िवादी विचारधाराओं से घिरा हुआ है, वक्त के साथ हमने अपने आचरण स्वभाव और व्यवहार में बदलाव ला दिया है, लेकिन फिर भी हम उन नियम कानून को चला रहे है जो आज के हिसाब से चलाना जरा मुश्किल है, जो दिखाता है कि हम अपनी सहूलियत के हिसाब से ही पुराने नियमों को चला रहे है.
क्या हाइकोर्ट पर भारी पड़ा मुस्लिम लॉ बोर्ड ?
ये सवाल इसलिए उठता है, क्योकि हाइकोर्ट जफर अब्बास की याचिका से सहमत नहीं ता,लेकिन फिर भी उसे राहत देनी पड़ी, कोर्ट कई बार इस तरह के फैसलों के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है जिस पर उसकी खुद की सहमति नहीं होती है, लिहाजा वक्त ये भी सोचने का है कि हमारे नियम कानूनों को आज के दौर के हिसाब से बनाना चाहिए, और ये काम विधाायितका है, लिहाजा अब सरकारों को हाइकोर्ट के इस टिप्पणी पर सोचना चाहिए.

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